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Saturday, December 21, 2013

54) साँस चलती रहती है

(Another poem in trash. Wrote it while I was in Vipassana)

साँस चलती रहती है, चाहे याद न रहता हो,
हर लम्हा है तू यादों में, बताता नहीं हूँ मैं |

जो गिर जाऊं मैं नज़रों से, मुझे कौन उठाएगा?
गिरी हुई चीज़ों को खुद, उठता नहीं हूँ मैं |

 कैसे मन की जानें यहाँ?भगवान नहीं कोई,
तो कैसे मैं भी जानूंगा ? विधाता नहीं हूँ मैं |

कब से प्यार बाँटा है, जाने कब तक बांटूंगा ?
मोहब्बत को खुद के लिए, बचाता नहीं हूँ मैं |

छीना क्यूँ दिल का सुकून, और पागल किया मुझे ?
नफरतों के फूल तो, उगता नहीं हूँ मैं |

मेरे मन को क्यूँ इतनी, चोट लगी 'अमन' ?
किसी के दिल को यूँ कभी, दुखाता नहीं हूँ मैं |

53) उन्हें देखना जो था

(Another old poem found in trash)

उन्हें देखना जो था, मेरी नज़र उठ गई,
पर वो थी घुटन में, थोड़ी और घुट गई |

मेरी हसरतों में उसके आँसू तो न थे,
इसलिए, उसे देखने की आदत भी छुट गई |

उसे पहचान चाहिए थी, मैंने पहचान दिलाई है,
फिर प्यार की कैसी मैंने, सज़ा पाई है ?

और सजा भी क्या है? न ज़ख्म है न खून,
है जिस्म ज्यों का त्यों, पर रूह लुट गई |

उसका हर गम मुझे अपना बनाना था,
दिल दरिया था, हर राज़ इस में छुपाना था |

पर जाने उसे क्यूँ गैर, ज्यादा करीब लगे ?
रक़ीब लगे अपने, और हम ग़रीब लगे |

 हर मसला अपना क्यूँ गैरों को सुनाया हाय !
किस्मत में खिलना था, फिर भी मुरझाया हाय !

वो तोड़ के सपने, फोड़ के मेरे सपनों के महल,
मुझे मनाना तो दूर, देखो खुद ही रूठ गई |

52) नहीं आशिक़ी से

(a long lost poem of mine. Found today in heap of old papers while cleaning house)

नहीं आशिक़ी से फ़ुर्सत है अब रूहे-आशिक़ को,
लगे है गर्त भी जन्नत, गुबारे-धुल नहीं पायेगी |

हो जान जिस्म से जुदा सो हो, गम न कर नादान,
मज़ा है जब माशूक़-ए-जुदाई क़ुबूल नहीं पायेगी |

हर वक़्त कुछ कर देने वालों में से था मैं,
मरने जाने पर रूह को तू मक़बूल नहीं पायेगी |

मेरी मोहब्बत का गुल तूने ठुकराया इसलिए,
क़ज़ा पर भी तू मेरे नाम से फूल नहीं पायेगी |

लिखता जा 'अमन' दिल तक, के इक दिन ख़ाक होना है,
कोई रखे न रखे याद, पर वो भूल नहीं पायेगी |