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Saturday, December 21, 2013

53) उन्हें देखना जो था

(Another old poem found in trash)

उन्हें देखना जो था, मेरी नज़र उठ गई,
पर वो थी घुटन में, थोड़ी और घुट गई |

मेरी हसरतों में उसके आँसू तो न थे,
इसलिए, उसे देखने की आदत भी छुट गई |

उसे पहचान चाहिए थी, मैंने पहचान दिलाई है,
फिर प्यार की कैसी मैंने, सज़ा पाई है ?

और सजा भी क्या है? न ज़ख्म है न खून,
है जिस्म ज्यों का त्यों, पर रूह लुट गई |

उसका हर गम मुझे अपना बनाना था,
दिल दरिया था, हर राज़ इस में छुपाना था |

पर जाने उसे क्यूँ गैर, ज्यादा करीब लगे ?
रक़ीब लगे अपने, और हम ग़रीब लगे |

 हर मसला अपना क्यूँ गैरों को सुनाया हाय !
किस्मत में खिलना था, फिर भी मुरझाया हाय !

वो तोड़ के सपने, फोड़ के मेरे सपनों के महल,
मुझे मनाना तो दूर, देखो खुद ही रूठ गई |

1 comment:

  1. Jab na likha tab bhi likhta chala gaya tujhe bhulne ki jidd par tujhse or jUdta. Chala gaya…...........ust a chala gaya........

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